हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
बिछड़ के तुझ से तेरे शहर में रहा न गया
कभी ये सोच के रोए के मिल सके तस्कीं
मगर जो रोने पे आए तो फिर हँसा न गया
कभी तो भूल गए पी के नाम तक उन का
कभी वो याद जो आए तो फिर पिया न गया
सुनाया करते थे दिल को हिकायत-ए-दौराँ
मगर जो दिल ने कहा हम से वो सुना न गया
समझ में आने लगा जब फ़साना-ए-हस्ती
किसी से हाल-ए-दिल-ए-राज़ फिर कहा न गया