भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हद-ए-उफ़ुक़ पर सारा कुछ वीरान उभरता आता है / अब्दुल अहद 'साज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:27, 24 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल अहद 'साज़' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हद-ए-उफ़ुक़ पर सारा कुछ वीरान उभरता आता है
मंज़र के खो जाने का इम्कान उभरता आता है

पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इनसानी किरदार
फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है

पीछे पीछे डूब रही हैं उम्र-ए-रवाँ की मँफ़अतें
आगे आगे इक भारी नुक़सान उभरता आता है

जैसे मैं दबता जाता हूँ उन आँखों के बोझ तले
दिल पर दो अश्कों का इक एहसान उभरता आता है

एक तशन्नुज इक हिचकी फिर इक नीली ज़हरीली क़य
क्या कुछ लिख देने जैसा हैजान उभरता आता है

'साज़' मिरी जानिब उठती है रात गए अँगुश्त-ए-अलस्त
रूह में इक भूला-बिसरा पैमान उभरता आता है