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हद / शहनाज़ इमरानी

हद का ख़ुद कोई वजूद नहीं होता
वो तो बनाई जाती है
जैसे क़िले बनाए जाते थे
हिफ़ाज़त के लिए

हम बनाते है हद
ज़रूरतों के मुताबिक़
अपने मतलब के लिए
दूसरों को छोटा करने के लिए
कि हमारा क़द कुछ ऊँचा दिखता रहे
छिपाने को अपनी कमज़ोरियों के दाग़-धब्बे
कभी इसे घटाते हैं, कभी बड़ा करते हैं

हद बनने के बाद
बनती हैं रेखाएँ, दायरे
और फिर बन जाता है नुक़्ता
शुरू होता है
हद के बाहर ही
खुला आसमान, बहती हवा
नीला समन्दर, ज़मीन की ख़ूबसूरती