भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हद / शहनाज़ इमरानी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:18, 10 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहनाज़ इमरानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हद का ख़ुद कोई वजूद नहीं होता
वो तो बनाई जाती है
जैसे क़िले बनाए जाते थे
हिफ़ाज़त के लिए

हम बनाते है हद
ज़रूरतों के मुताबिक़
अपने मतलब के लिए
दूसरों को छोटा करने के लिए
कि हमारा क़द कुछ ऊँचा दिखता रहे
छिपाने को अपनी कमज़ोरियों के दाग़-धब्बे
कभी इसे घटाते हैं, कभी बड़ा करते हैं

हद बनने के बाद
बनती हैं रेखाएँ, दायरे
और फिर बन जाता है नुक़्ता
शुरू होता है
हद के बाहर ही
खुला आसमान, बहती हवा
नीला समन्दर, ज़मीन की ख़ूबसूरती