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हनुमानबाहुक / भाग 4 / तुलसीदास

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सवैया

जानसिरोमनि हौ हनुमान सदा जनके मन बास तिहारो।
ढारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो॥
साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार हृै हों मन तौ हिय हारो॥ 16॥

भावार्थ - हे हनुमानजी! आप ज्ञान शिरोमणि हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है। मैं किसी का क्या गिराता या बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं; मैं तो आपका दास हूँ। हे स्वामी! आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ॥ 16॥


तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके से जाले।
बुढ़ भये बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥ 17॥

भावार्थ - हे वानरराज! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिस पर प्रसन्न हुए वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बुढ़े हो गये अथवा बहुत से गरीबों का पालन करते-करते आप अब थक गये हैं ? (इसीसे मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं)॥ 17॥

सिंधु तेर, बडे़ बीर दले खल, जारे हैं लंकसे बंक मवासे।
तै रन-केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेइ सहै तुलसी दुख-दोष दवा से।
बानर-बाज!बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से॥ 18॥

भावार्थ - आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसोंका विनाश करके लंका-जैसे विकट गढ़ाको जलाया। हे संग्रामरूपी वनके सिंह! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला। आपके बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)। हे वानर रूपी बाज! बहुत से दुष्टजनरूपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ?॥ 18॥

अच्छ-बिमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन-से कुंजर केहरि-बारो॥
राम-प्रताप-हुतासन कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर दुलारो।
पापतें, सापतें, ताप तिहूँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो॥ 19॥

भावार्थ - हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमानजी! आपने अशोक वाटिका को विध्वंस किया और रावण जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की और देखा तक नहीं अर्थात उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण-सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था कें सिंह हैं। विपक्ष रूप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नितुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन रूप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसी दास को सर्वदा पाप, शाप और संताप तीनों से बचाने वाले हैं॥ 19॥

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमानकौ निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारियै।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥ 20॥

भावार्थ - हे हनुमानजी! बलि जाता हूँ ; अपनी प्रतिज्ञाको न भुलाईये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवाके योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सम्हालिये। मुझे अपराधि समझते हो तो सहस्त्रों भांतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लडडू दोनेसे मरता हो तो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथ जी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये॥ 20॥