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हनुमानबाहुक / भाग 8 / तुलसीदास

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                             सवैया
रामगुलाम तुही हनुमान
गोसाँइ सुसाँइ सदा अनुकूलो।
पाल्यो हौ बाल ज्यों आखर दू
पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥
बाँहकी बेदन बाँहपगार
पुकारत आरत आनँद भूलो।
श्रीरघुबीर निवारिये पीर
रहौं दरबार परो लटि लूलो॥ 36॥

भावार्थ - हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा रामचन्द्रजीके सेवकोंके पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द मंगल के मूल दोनो अक्षरों (राम-नाम) ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे बाहुपगार (भुजाओंका आश्रय देनेवाले) बाहुकी पीड़से मैं सारा आनन्द भुलाकर दुखी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुलके वीर ! पीड़ाको दूर कीजिये जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँ॥ 36॥

घनाक्षरी
कालकी करालता करम कठिनाई कीधौं,
पापके प्रभावकी सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीरडावरे॥
लायो तरू तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सींचिये मलीन भो तयो है तिहूँ तावरे।
भूतनिकी आपनी परायेकी कृपानिधान,
जानियत सबहीकी रीति राम रावरे॥ 37॥

भावार्थ - न जाने कालकी भयानकता है, कर्मोंकी कठिनता है, पापका प्रभाव है अथवा स्वाभाविक वातकी उन्मत्तता है। रात-दिन बुरी तरहकी पीड़ा हो रही हैं, जो सही नहीं जाती और उसी बाँहको पकड़े हुए है जिसको पवनकुमारने पकड़ा था। तुलसीरूपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है। यह तीनों तापोंकी ज्वालासे झुलसकर मुरझा गया है इसकी ओर निहारकर कृपारूपी जलसे सींचिये। हे दयानिधान रामचन्द्रजी ! आप भूतोंकी, अपनी और बिरानेकी सबकी रीति जानते है॥ 37॥

पायँपीर पेटपीर बाँहपीर मुहपीर,
जरजर सकरल सरीर पीरमई है
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहिपर दवरि दमानक सी दई है।
हौं तो बिन मोलके बिकानो बलि बारेही तें,
ओट रामनामकी ललाट लिखि लई है।
कुंभजके किंकर बिल बूड़े गोखुरनि,
हाय रामराय ऐसी हाल कहूँ भई है॥ 38॥

भावार्थ - पाँवकी पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीडा और मुखकी पीड़ा-सारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह -सब साथ ही दौरा करके मुझपर तोपोंकी बाड़-सी दे रहै हैं। बलि जाता हूँ, मैं तो लड़कपनसे ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपाल में रामनाम का आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचन्द्रजी ! कहीं ऐसी दसा भी हुई है कि अगस्त्या मुनिका सेवक गायके खुरमें डूब गया हो॥ 38॥

बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि,
मुँहपीर-केतुजा कुरोग जातुधान है।
रामनाम जपजाग कियो चहो सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं।
सुमिरे सहाय रामलखन आखर दोऊर,
जिनके समूह साके जागत जहान हैं।
तुलसी सँभारि ताड़का-सँहारि भारी भट
बेघे बरगदसे बनाइ बानवान हैं॥ 39॥

भावार्थ - बाहुकी पीड़ारूप नीच सुबाहु और देहकी अशक्ति-रूप मारीच राक्षस और ताड़कारूपिणी मुखकी पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरूप राक्षसोंसे मिले हुए हैं। मैं रामनामका जपरूपी यज्ञ प्रेमके साथ करना चाहता हूँ, पर कालदूत के समान ये भूत क्या मेरे काबूके हैं ? (कदापि नहीं) संसारमें जिनकी बड़ी नमावरी हो रही है, वे (रा और म) दोनों अक्षर स्मरण करनेपर मेरी सहायता करेगें। हे तुलसी ! तू ताड़काका वध करनेवाले भारी योद्धाका स्मरण कर, वह इन्हें अपने बाणका निशाना बनाकर बड़के फलके समान भेदन (स्थानच्युत) कर देंगे॥ 39॥

बालपने सूघे मन राम सनमुख भयो,
रामनाम लेत भाँति खात टूकटाक हौं।
पर्यो लोकरीतिमें पुनीत प्रीति रामराय,
मोहबस बैठो तोरि तरकितराक हौं॥
खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो,
अंजनीकुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।
तुलसी गोसाइँ भयो भोंड़े दिन भूलि गयो,
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं॥ 40॥

भावार्थ - मैं बाल्यावस्थासे ही सीधे मनसे श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख हुआ, मुँहसे रामनाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था (फिर युवावस्थामें) लोकरीतिमें पड़कर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजीके चरणोंकी पवित्र प्रीतिको चटपट(संसारमें) कूदकर तोड़ बैठा। उस समय खोटे-खोटे आचरणोंको करते हुए मुझे अजंनीकुमार ने अपनाया और रामचन्द्रजीके पुनीत हाथोंसे मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाई हुआ। अच्छी तरह पा रहा हूँ॥ 40॥