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हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर / शकेब जलाली
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हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर
आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर
पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर
यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर
कितने ही ज़ख़्म मेरे एक ज़ख़्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर
जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी न गिरी सायबान पर
मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
हक़ बात आके रुक-सी गई थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर