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हमारा इतिहास / अनुपम सिंह

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एक औरत की नील पड़ी पीठ
जिसे सूरज ने अर्घ्य से लौटते हुए दागा था
देवताओं और राजाओं के कपड़े धोते-पछीटते
एक दूसरी औरत की झुकी हुई पीठ
एक पीठ की बिसात पर फेंकी गईं पासे की गोटियाँ
एक शापित शिलाखण्ड
जिसके लिए औरतें
अनादिकाल से एड़ियाँ रगड़ रही हैं
एक औरत की कटी हुई नाक जिसे किसी भद्र ने
प्रणय निवेदन के अपराध मे काटा था ।

इतिहास का एक पन्ना
जिसके कोने में दर्ज हैं विषकन्याएँ
हाँ ,वही विषकन्याएँ
जिन्होनें कितने ही राजाओं
मन्त्रियों और पुरोहितों को मार डाला
अपने तेज़ दाँतों से ।

वे विषैले दाँतों वाली औरतें
चीख़ रही हैं भरी अदालतों में
झूठ… झूठ… झूठ...
स र ऽऽऽ स ऽ र झूठ
हम जन्मना विषकन्याएँ नहीं थीं
विष को धीरे-धीरे उतारा गया
नसों, धमनियों और शिराओं में ।

एक सच कि झूठे स्वाभिमान और
टुच्चे स्वार्थों के लिए औरतें
युद्ध में कभी शामिल नहीं रहीं
न तो औरतों के लिए कोई युद्ध
लड़ा गया इतिहास में ।

विषकन्याएँ एक स्वर में कहती हैं
कि झूठ के ताले में बन्द है हमारा इतिहास
युद्ध के लिए स्वीकृति कभी नहीं दी विषकन्याओं ने ।

हम औरतें
जो चुड़ैल बन भटक रही हैं इधर-उधर
पीपल के पुराने पेड़ों
वीरान खण्डहरों में हमारा ही निवास है
हाँ हमीं थीं जो जँगलों से निकल बावड़ी में पानी पीतीं
और अपनी ही छाया देखकर डर जाया करती थीं
बावड़ी के किनारे चुड़ैलों के ही अवशेष मिले हैं खुदाइयों में ।

खड़ी दोपहर में हम झुण्ड में चलतीं
मातम मानते हुए
जो एक साथ कूद गईं थीं चिताओं में
जौहर करने

हम तो सबसे कमज़ोर निर्मितियाँ थीं
इसलिए सबसे अधिक रूठा करतीं
कूद जातीं कुओं में
औ फूल बन उगतीं थीं
कुओं से लौटती प्रतिध्वनि
हमारा ही अधूरा गाना है ।

शिल्पकारों ने हमारे देह की विभिन्न आकृतियाँ बना
कील दिया स्थापत्यों में
तब से लेकर आज तक
आने-जाने वाला हर राहगीर
हमारी टेढ़ी कमर पर हाथ फेर लेता है ।

धर्मग्रन्थों और इतिहास की इन स्याह
पाण्डुलिपियों को अपनी पीठ पर लादे
औरतें फिर रही हैं प्राचीनकाल से
हमारी पीठ पर जो कूबड़ दिखाई दे रहा है
वह उसी का बचा हुआ अवशेष है
हम यक्षणियों को क़ैद हुए लम्बा समय गुज़रा है ।

धनकुबेर के तहख़ानों
इतिहास के पन्नों
और तुम्हारी कलाओं में
अब छटपटा रही हैं हमारी आत्माएँ ।