भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हमारा देश / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
इन्हीं के मर्म को अनजान
 
इन्हीं के मर्म को अनजान
 
शहरों की ढँकी लोलुप
 
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता ह॥
+
विषैली वासना का साँप डँसता है।
  
 
इन्हीं में लहरती अल्हड़
 
इन्हीं में लहरती अल्हड़

12:58, 6 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है

इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है।

इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है।

इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।

राँची-मुरी (बस में), 6 फरवरी, 1949