भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारा देश / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:56, 6 अगस्त 2012 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है

इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है।

इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता ह॥

इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।

राँची-मुरी (बस में), 6 फरवरी, 1949