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हमारी द देओ आरसी / ब्रजभाषा

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

हँसके माँगे चन्द्रावली हमारी दे देओ आरसी॥ टेक
मनसुख नें मुख देखन लीनी जी।
हाथन में चलती कर दीनी जी॥
चली कछु बानें ऐसी चाल कि देखत रह गईं सब ब्रजबाल,
लायकैं दीनी तुम्हें गुपाल।

दोहा- दीनी तुमको लायकैं, दीजै हमें गहाय।
बिना आरसी जाऊँगी, घर में सास रिस्साय॥
घर में सस रिस्याय, होत दीखे तकरार सी॥ हँसके.

तो तौ ग्वालिन चढ़ रही सेखी जी।
नाहिं आरसी मैंने तेरी देखी जी॥
चोरि मनसुख ने कब कर लई, लायके मोकू कब क्यों दई।
आरसीदार अनौखी भई॥

दोहा- तुही अनौखी आरसी, ब्रज में पहिरनहार।
जोवन ज्वानी जोर से, है रही तू सरसार॥
है रही तू सरसार नार खिल रही अनार सी॥ हँसके.

तू तौ ओढ़े लाला कम्बल कारौ रे।
कहा आरसी कौ परखनहारौ रे॥
मुकुट मुरली कुण्डल को मोल, मेरी आरसी बनी अनमोल।
बोलत क्यों है बढ़-बढ़ के बोल॥

दोहा- बढ़-बढ़ के बोलै मती, जनम चराये ढोर।
घर-घर में ते जायके, खायौ माखन चोरि॥
खायौ माखन चोरि, लाल तुम बड़े बनारसी॥ हँसके.

चन्द्रावलि चतुराई दिखावै जी।
आप शाह मोय चोर बताबै जी॥
जात गूजर दधि बेचनहार, अपनी रही बड़ाई मार।
आरसी दऊँ मानलै हार॥

दोहा- हार मानके कहेगी, मुझ से जब ब्रजनार।
धमकी ते दुंगो नहीं, चाहें कहै हजार॥
चाहंे कहै हजार बोल, तेरौ कौन सिपारसी॥ हँसके.

चन्द्रावलि मन में मुस्काई जी।
तुरत आरसी श्याम गहाई जी।
आरसी दै दीनी नन्द नन्द, ग्वालिनी चली मान आनन्द
कृष्ण कौ बुरौ प्रीत को फन्द॥

दोहा- बुरौ प्रीत कौ फन्द है, साँचे मन से प्रेम
प्रेमिन के बस आयके, बिसर जाय सब नेम
‘घासीराम’ जीत गये मोहन, ग्वालिन हार सी॥ हँसके.