भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमें फिर बरगलाया जा रहा है / दीपक शर्मा 'दीप'
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 12 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हमें फिर बरगला या जा रहा है
ख़ुदा का नाम लाया जा रहा है
तबस्सुम ही चबाया जा रहा था
तबस्सुम ही चबा या जा रहा है
वही है ज़िन्दगी,है कर्ज़ यानी
चुका ना था,चुकाया जा रहा है
बहुत हैरत-ज़दा हैं, क्या बतायें
बँधे हैं पांव, जा या जा रहा है
वही पर्दा है अपनी आँख पे जो
उसी से मात खाया जा रहा है
जगाया जा रहा है रोज़ ख़ुद को
जगा के फिर सुलाया जा रहा है
मकाँ नामूनिशां में भी नहीं और
महीने का किराया जा रहा है