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हम-तुम कहीं चल दें! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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दूध-जैसी चाँदनी में एक नन्ही नाव पर-
हम-तुम कहीं चल दें!

नाव बढ़ती हो थिरकती, हँस रहे हों चाँद-तारे,
जल-लहरियों पर जड़े हों, मोतिया सलमे-सितारे,
यह मरण की भूमि तज, सीमित क्षितिज को पार कर-
हम-तुम कहीं चल दें!

मैं तुम्हारे कुन्तलों को सूँघता डाँडे चलाऊँ,
नाव टकराने लगे-भुज-कूल में तुमको बचाऊँ
मधुर दूरागत चिरन्तन रागिनी सुनते अमर-
हम-तुम कहीं चल दें!

हों जहाँ पर नित सुनहले भोर, अंगूरी निशाएँ,
धूप चम्पक-सी, सरस-संगीतमय मुकुलित दिशाएँ,
हास में आता जहाँ मधुमास ही सारा उतर-
हम-तुम कहीं चल दें!

मैं चलूँ तुमको सुनाता लौ-पतिंगे की कहानी,
तुम निहारो-चाँद-बदली की चुहल, चुपचाप, रानी!
शरबती सिल्कन पवन में अधर पर धरते अधर-
हम-तुम कहीं चल दें!

तुम चलाओ डाँड, फहरे वस्त्र जालीदार झीना,
चिलचिलाए हार का हीरा, अगँठी का नगीन,
यों उठाते-से तरल-उत्ताल लहरों पर लहर-
हम-तुम कहीं चल दें!

रतजगा करते हुए, ले नाव हंसाकार अपनी,
लीन हो जाएँ क्षितिज में-है बसा जिस ओर, सजनी!
किरण-कुंजों से घिरा संगीत का नीलम नगर-
हम-तुम कहीं चल दें!

दूध-जैसी चाँदनी में, एक नन्ही नाव पर-
हम-तुम कहीं चल दें!

प्रिये, हम-तुम कहीं चल दें!