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हम अजाने रहे नाम होते हुये / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

हम अजाने रहे नाम होते हुये!
एक तुम्हारे रहे आम होते हुये!

पास उनके पहुँचना न मुमकिन हुआ,
हाथ में एक पैगाम होते हुये!

तोड़ दिल ज़िन्दगी का न हम जा सके,
मौत के घर बहुत काम होते हुये!

बन्दगी हर डगर, हर नज़र से मिली,
एक ज़माने से बदनाम होते हुये!

यूँ तो बिकने को हर चीज बिकती रही,
कुछ ख़रीदा नहीं दाम होते हुये!

एक अरसे से पीते-पिलाते रहे,
प्यास हर बार अंजाम होते हुये!

इस जहाँ को न हम मैकदा कह सके,
आज हर हाथ में जाम होते हुये!

सामने दौर-पर-दौर चलते रहे,
हम रहे दूर खैयाम होते हुये!

आज तक तो कभी हमने देखा नहीं,
आखरी दाँव नाकाम होते हुये!

दिन ही कुछ ऐसे ‘सिन्दूर’ अब आ गये,
आह भरते हैं आराम होते हुये!