भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हम अपने दुख को गाने लग गए हैं / मदन मोहन दानिश" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमलेश त्रिपाठी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> हम अपने द…)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=विमलेश त्रिपाठी
+
|रचनाकार=मदन मोहन दानिश
 
|संग्रह=  
 
|संग्रह=  
 
}}  
 
}}  

00:27, 19 मार्च 2011 के समय का अवतरण

हम अपने दुख को गाने लग गए हैं
मगर इसमे ज़माने लग गए हैं

किसी की तरबियत का है करिश्मा
ये आँसू मुस्कुराने लग गए हैं

कहानी रुख़ बदलना चाहती है
नए किरदार आने लग गए हैं

ये हासिल है मेरी ख़ामोशियों का
कि पत्थर आज़माने लग गए हैं

मेरी तन्हाइयाँ भी उड़ न जाएँ
परिंदे आने-जाने लग गए हैं

जिन्हें हम मंज़िलों तक ले के आए
वही रस्ता बताने लग गए हैं

शराफ़त रंग दिखलाती है दानिश
सभी दुश्मन ठिकाने लग गए हैं