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हम उस शोख़ के सौदाई हैं यह तो हमारी मर्ज़ी है / परमानन्द शर्मा 'शरर'

हम उस शोख़ के शैदाई हैं यह तो हमारी मर्ज़ी है
उसकी इनायत भी हो हम पर उसकी अपनी मर्ज़ी है

अपनी ख़ता या उसकी रज़ा या तोहमत दुनिया वालों की
इक मेरी रुस्वाई में शामिल किस-किस की मर्ज़ी है

इश्क़ है कोई स्वाँग नहीं है यह तो दिल की दुनिया है
जिसके मन को जो भा जाए उसकी अपनी मर्ज़ी है

बहरे-फ़ना में तैरने वालो ख़ुद को मत तैराक कहो
साहिल मिले मिले न मिले साहिल वाले की मर्ज़ी है
 
इन्साँ का मजबूरी तौबा जीना हाथ न मरना है
फिर भी यह नाबीना ख़ुदबीं रटता ‘मर्ज़ी’ ‘मर्ज़ी’ है

सूदो-ज़ियाँ के क़िस्से छोड़ो जब सब कुछ है उसके हाथ
उसकी मर्ज़ी के आगे कब चलती किसकी मर्ज़ी है