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हम कैसे ठीक आपका ये मशवरा कहें / ओंकार सिंह विवेक

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हम कैसे ठीक आपका ये मशवरा कहें,
जो मुददआ नहीं है उसे मुददआ कहें।

मालूम है कि होगा हवाओं से सामना,
फिर किस लिए चराग़ इसे मसअला कहें।

इंसां को प्यास हो गई इंसां के ख़ून की,
वहशत नहीं कहें तो इसे और क्या कहें।

है रहज़नों से उनका यहाँ राबिता-रसूख़,
तुम फिर भी कह रहे हो उन्हें रहनुमा कहें।

वो सुब्ह तक इधर थे मगर शाम को उधर,
ऐसे अमल को सोचिए कैसे वफ़ा कहें।

इंसानियत का दर्स ही जब सबका अस्ल है,
फिर क्यों किसी भी धर्म को आख़िर बुरा कहें।

मिलती है दाद भी उन्हें फिर सामिईन की,
शेरो-सुख़न में अपने जो अक्सर नया कहें।