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हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला / हिलाल फ़रीद

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हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
समझे थे जिसे पत्थर वो शख़्स ख़ुदा निकला

इस दश्त से हो कर भी इक सैल-ए-अना निकला
कुछ बर्ग-ए-शजर टूटे कुछ ज़ोर-ए-हवा निकला

उलझन का सुलझ जाना इक ख़ाम-ख़याली थी
जब ग़ौर किया हम ने इक पेच नया निकला

ऐ फ़ितरत-ए-सद मानी ‘ग़ालिब’ की ग़ज़ल है तू
जब हुस्न तेरा परखा पहले से सवा निकला

हम पास भी जाने से जिस शख़्स के डरते थे
छू कर जो उसे देखा मिट्टी का बना निकला

फूलों में ‘हिलाल’ आओ अब रक़्स-ए-ख़िजाँ देखें
काँटों के नगर में तो हर बाग़ हरा निकला