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हम जहाँ तक पहुँचते हैं, वहाँ तक हमारी दुनिया है / संजय कुमार शांडिल्य

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कोई दूर जाता हुआ कहे जा रहा था कि हम
जहाँ तक पहुँचते हैं वहाँ तक हमारी दुनिया है
इस तरह वह रोटी तक समेट रहा था हमें
और नमक तक
ताकि वह समुद्र तक हमारी पहुँच काट दे
वह नदियों के रेशे-रेशे को लिबास की तरह बाँट रहा था
उड़ता हुआ कपास हमारी पहुँच से दूर चला गया
हम पाँव भर ज़मीन सिर भर आसमान और कण्ठ भर शब्द हो गए
उसने कहा पृथ्वी और मंगल के बीच क्या है
शब्दों के सिवा
धीरे-धीरे हमारी मातृभाषा में खाली जगहें थीं ध्वनियों की
हमारी पुकार सिर्फ़ सन्नाटे तक पहुँचती थी और अँधेरे में खो जाती थी
हम कहीं नहीं पहुँचने के लिए अपने पाँवों के खिलाफ़ चल रहे हैं
सारे रास्तों में यात्रा सिर्फ़ उसकी है
उसे जहाँ भी पहुँचना है सिर्फ़ वही पहुँच रहा है
ये मेरे हाथ उसके हाथ हैं, मेरी आँखें उसकी आँखें हैं
यह मेरा रक्त है जो उसके जिस्म में दौड़ रहा है
वही है जो करोड़ों मुँह से बोल रहा है खूब गाढ़े पर्दे के उस पार
मैं उस तक पहुँचने से पहले कोयला हो जाऊँगा
वह अपनी कोटि-कोटि जिह्वाओं से मुझ पर अपना विष बरसा रहा है
शब्दों के बीच की जगहों में थोड़ा अर्थ रखे जाता हूँ
समझ पाओ तो कहने का संघर्ष सफल न समझो तो
यह कि अर्थवान ध्वनियाँ समय के अजदहे खा गए।