भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम देहरी-दरवाज़े ! / दिनेश सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 28 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= दिनेश सिंह |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <Poem> राजपाट छोड़कर गए…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राजपाट छोड़कर गए
राजे-महाराजे
हम उनके कर्ज पर टिके
देहरी-दरवाजे

चौपड़ ना बिछी पलंग पर
मेज़ पर बिछी
पैरों पर चाँदनी बिछी
सेज पर बिछी

गुहराते रोज़ ही रहे
धर्म के तकाजे

अपने-अपने हैं कानून
मुक्त है प्रजा
सड़ी-गली लाठी को है
भैंस ही सज़ा

न्यायालय : सूनी कुर्सी
क्या चढ़ी बिराजे !

चमकदार आँखें निरखें
गूलर का फूल
जो नही खिला अभी-कभी
किसी वन-बबूल

अंतरिक्ष में कहीं हुआ
तारों में छाजे