भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम नदी के दो किनारे / विशाल समर्पित

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 8 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विशाल समर्पित |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए

मधु-मिलन के मंत्र पावन
रात-दिन हमने पढ़े थे
बंधनो की आस बाँधे
भुज प्रतीक्षारत खड़े थे
किंतु पग जड़ पर्वतों सम
लेश भर भी हिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए... (1)

जब कभी तुमको भुलाया
तीव्र-गति से याद आई
दर्द की दारुण कहानी
झूम कर हमने सुनाई
इस जहाँ के मन मुताबिक़
होंठ अपने सिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए... (2)

दोष इतना था हमारा
देखते थे मिलन सपना
इस मिलन की चाह ने पर
खो दिया हर एक अपना
आँख उपवन में कभी भी
फ़ूल सुंदर खिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए... (3)