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हम फ़लक के आदमी थे साकिनान-ए-क़र्या-ए-महताब थे / रियाज़ मजीद

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हम फ़लक के आदमी थे साकिनान-ए-क़र्या-ए-महताब थे
हम तिरे हाथों में कैसे आ गए हम तो बड़े नायाब थे

वक़्त ने हम को अगर पत्थर बना डाला है तो हम क्या करें
याद हैं वो दिन भी हम को हम भी जब मेहर-ओ-वफ़ा का बाब थे

ज़र लुटाते गुज़रे मौसम आने वाली रौशनी लाती रूतें
चंद यादें चंद उम्मीदें हमारी ज़ीस्त के असबाब थे

ख़्वाब और ताबीर हैं दो इंतिहाओं पर हमें ये इल्म था
हम जिए जाते थे फिर भी अपने क्या फ़ौलाद के आसाब थे

हो सकी हैं कब ख़यालों की हम-आहंगी की ज़ामिन क़ुर्बतें
एक ही बिस्तर पे सोने वालों के भी अपने अपने ख़्वाब थे

जो ‘रियाज़’ आता था हम को याद वो इक क़र्या-ए-सरसब्ज़ था
चंद रौशन ताक़ थे कुछ नूर में डूबे हुए मेहराब थे