जब दुःख रिस रहे थे
हमारी आत्मा के कोनों-अन्तरों से
हम पागलों की तरह सर धुनते थे
हम स्वप्न में भी भागते
और बार-बार गिर पड़ते
हम अन्धेरे द्वीपों के किनारों पर
खड़े विलाप करते
हमारा अन्त हमें मालूम था
आप, बस, इतना ही समझिए
कि हम कवि थे
और कविता के निर्मम बीहड़ एकान्त में
मारे गए !
(रचनाकाल: 2016)