भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम यूँही बिखरे नहीं हर-सू ख़स ओ ख़ाशाक में / नज़र जावेद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम यूँही बिखरे नहीं हर-सू ख़स ओ ख़ाशाक में
हैं नुमू बर-दोश रंग ओ बू ख़स ओ ख़ाशाक में

उसे के होने का गुमाँ रहता है मेरे आस-पास
हर तरफ़ रच-बस गई ख़ुश्बू ख़स ओ ख़ाशाक में

हो समर-आवर हमारी आबला-पाई कहीं
चैन आ जाए किसी पहलू ख़स ओ ख़ाशाक में

चाहिए होती है किश्त-ए-ज़र को जब भी कुछ नुमू
मैं बहा देता हूँ कुछ आँसू ख़स ओ ख़ाशाक में

जब उधर उठते हैं ताले-आज़माओं के क़दम
बुझने लगते हैं इधर जुगनू ख़स ओ ख़ाशाक में

ये ऐ ‘जावेद’ गुज़रे मौसमों की राख है
आख़िरश क्या ढूँढता है तू ख़स ओ ख़ाशाक में