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हम लूले-लँगड़े / राजेन्द्र गौतम

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बैठे हैं ओढ़े ये शाश्वत मुद्राएँ
हमको प्रतिपल बींधें ख़बरों के भाले ।

क्यों कुछ कहती इनसे
मिमिया-मिमिया कर
ये जंगल से डरी हुई भेड़ें
कल के इतिहासों की
नींव इन्हे रखनी है
छोटी-छोटी तकलीफ़ों को होंठ भींच सह लें
और बहुत कुछ करना इनको, ये सन्तों के साले ।

इनके अभिनन्दन को
लिए खड़ी माला
रत्न-जड़े क्षितिजों पर
उत्सुक युवा सदी
कहाँ लाँघ पाएँगे
हम लूले-लँगड़े
हर-हर कर बहती
जो दहती रक्त-नदी
राजपथों को चौड़ा उनको करना है
बिछना है हम को बन डामर के डाले ।