भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम शब्दों के व्यापारी हैं शब्द बेचने आए हैं / सुरेन्द्र सुकुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम शब्दों के व्यापारी हैं शब्द बेचने आए हैं।
गीत, ग़ज़ल, छंद औ’ दोहा, सुनो रुबाई लाए हैं।

कहो, गीत को ग़ज़ल बना दूँ, या कि रुबाई को मुक्तक
हमने ही अफ़साने हातिमताई वाले गाए हैं।

हम ही लाए तोता-मैना, हम हीं लैला औ’ मजनू,
क़िस्से सिन्दबाद के भी तो हमने ही फरमाए हैं।

हीर और राँझा का क़िस्सा भी मेरा ही अपना था,
और बुलाकी नाऊ घासीराम सभी को भाए हैं।

रामायण हमने ही बाँची और भागवत भी हमने,
हमने ही गीता बाँची अर्जुन को पाठ पढ़ाए हैं।