भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम ही सच थे कभी न हम बहके / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:09, 18 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> हम ही स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम ही सच थे कभी न हम बहके
आप तो खा के भी क़सम बहके

आपके हाथ बिक चुके होंगे
वरना कैसे कोई क़लम बहके

अपना रिश्ता बहुत पुराना है
किस के कहने पे मोहतरम बहके

आंसुओ की झड़ी लगा देंगे
इक ज़रा सा जो चश्मे नम बहके

उनके कूचे से आ रहे होंगे
चल रहे हैं क़दम क़दम बहके