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हरगिज़ ने मेरे महरम-ए-हम-राज़ हुए तुम / मिर्ज़ा मोहम्मद तकी 'हवस'

हरगिज़ ने मेरे महरम-ए-हम-राज़ हुए तुम
आईने में अपने ही नज़र-बाज़ हुए तुम

शिकवा न मुझे ग़ैर से नै यार की ख़ू से
दुश्‍मन मेरे ऐ ताला-ए-ना-साज़ हुए तुम

ख़मियाज़ा-कुशान-ए-मैं उल्फ़त की बन आई
मय की के जो कल मस्त-ए-सर-अंदाज़ हुए तुम

मैं तुम को न कहता था के आईना न देखो
आख़िर हदफ-ए-चश्‍म-ए-फुसूँ-साज़ हुए तुम

दुख पहुँचे जो कुछ तुम को तुम्हारी ये सज़ा है
क्यूँ उस के ‘हवस’ आशिक़-ए-जाँ-बाज़ हुए तुम