भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिजन टोली / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:15, 2 अक्टूबर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह }} <poem> हरिजन टोली में श...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हरिजन टोली में शाम बिना कहे हो जाती है।

पूरनमासी हो या अमावस

रात के व्यवहार में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

और जब दिन के साथ चलने के लिए

हाथ-पैर मुश्किल से अभी सीधे भी नहीं हुए रहते,

सुबह हो जाती है।


कहीं रमिया झाड़ू-झंखा लेकर निकलती है

तो कहीं गोबिंदी गाली बकती है।

उसे किसी से हँसी-मजाक अच्छा नहीं लगता

और वह महतो की बात पर मिरच की तरह परपरा उठती है।

वैसे, कई और भी जवान चमारिनें हैं,

हलखोरिनें और दुसाधिनें हैं,

पर गोबिंदी की बात कुछ और है-

वह महुवा बीनना ही नहीं,

महुवा का रस लेना भी जानती है।


उसका आदमी जूता कम, ज़्यादातर आदमी की जबान

सीने लगा है । मुश्किल से इक्कीस साल का होगा,

मगर गोबिंदी के साल भर के बच्चे का बाप है।

क्या नाम है?- टेसू! हाँ, टेसुआ का बाप