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हरि हाँस / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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सत गुरु शब्द सुनंद, आत्मा जागिया। मिलो भवन को भेद भर्म उठि भागिया।
त्रिकुटी पार पहार, हिरा को खानि है। धरनी वरनि न जाय, जनैया जानि है॥1॥

धरनीश्वर को ध्यान महादेव जी। धरनीश्वर को ध्यान, धरो शुकदेव जी।
धरनीश्वर को ध्यान, धरो नारद मुनी। धरनीश्वर को ध्यान, परिच्छितने सुनी॥2॥

धरनीश्वर को ध्यान धरो, प्रह्लाद जी। धरनीश्वर को ध्यान, धरो धु्रवनाथ जी।
धरनीश्वर धर ध्यान, जनक वलि व्यास जी। नामदेव कव्वीर, धना रविदास जी॥3॥

धरनीश्वर को ध्यान, धरँ सब सन्त जी। धरनीश्वर को ध्यान आदि अरु अन्त जी।
धरनीश्वर के ध्यान, सकल फल होय जी। धरनी गुरु गम करयो कह्यो सब कोय जी॥4॥

धरनीश्वर प्रभु एक, न आवै जाय जी। धरनी मन वच कर्म धरा ठहराय जी।
वाद विवाद करै सो, ई अज्ञान जी। जाको जँह मन मान, सो तहाँ विकान जी॥5॥

धरनीश्वर कृपहिँ, संत गुरु ना मिलै। विनु सतगुरु की दयी, किवारी ना खुलै।
विना साधु के संग, रंग पुनि ना चढ़ै। विनु आपा के मिटे, कला कलि ना बढ़ै॥6॥

धरनीश्वर करि कृपा, जनहिँ अपनाइया। प्रेम प्रवाह वढ़ो अनुभव पद गाइया।
जगमेँ जीवन-मुक्त, दशाँ दिशि जानिया। सुर नर नाग नरेंद्र, सबै मन मानिया॥7॥

धरनीश्वर को चरित, पढ़ै मन लायजी। और न देय सुनाय, सिखाय लिखाय जी।
सो नर पावै भक्ति, शक्ति नहि जाय जी। धरनी सोच विचारि, कहै समुझाय जी॥8॥

हेत करै हरि हाँस, आस ताकी पुरै। सदा संचरै सुमति, कुमति दूरहि दुरै।
ताके संवल साथ, असोची पंथ को। धरनी वरनि न जाय, महातम ग्रन्थ को॥9॥