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हरेराम समीप के दोहे-1 / हरेराम समीप

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प्रश्नोतर चलते रहे, दोनों में चिरकाल
‘विक्रम’ मेरी जिन्दगी, वक्त हुआ ‘बेताल’

इस भारी बरसात में, हैं तूफान अनेक
उस पर यारो हाथ में, माचिस तीली एक

संशय के सुनसान में, जला-जलाकर दीप
दुख की आहट रात भर, सुनता रहा ‘समीप’

जी चाहा तो चख लिया, वर्ना है बेकार
कविता अब तो प्लेट में, रक्खा हुआ अचार

शब्दों का कुछ इस तरह, आज हुआ अपमान
नागफनी फैली जहाँ, उसे कहें उद्यान

जूतों की कीमत चुकी, साढ़े तीन हजार
कविता की पुस्तक मगर, सौ रुपए में भार

पुरस्कार की लाटरी, सम्मानों की सेल
साहित्यिक बाजार में, देखी रेलम-पेल

कभी क्रोंचवध देखकर, उतरा पहला छन्द
मगर क्रूरता देखकर, अब आए आनन्द

बचपन में जिसकी क़लम, वक्त ले गया छीन
बालपेन वह बेचता, बस में ‘दस के तीन’

गर्व करें किस पर यहां, किस पर करें विमर्श
आधा है यह इंडिया, आधा भारतवर्ष

बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज
बाद रफू के हो गई, वो दो-रंगी चीज

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ

क्यों रे दुखिया! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज

अब भी अपने गाँव में, बेटी यही रिवाज़
पहले कतरें पंख फिर, कहें, भरो परवाज़

जा बन जा विद्रोहणी, और न रह मासूम
माँ ने बेटी से कहा, उसका माथा चूम

ये आये या वो गये,सबने चूसा खून
कौन गड़रिया छोड़ता,किसी भेड़ पर ऊन

बिगड़ न जाए चेहरा, वो रखता यह ध्यान
घूम रहा जो पहन कर, कलफ़ लगी मुस्कान

उसका है ये वायदा, जीता अगर चुनाव
पानी पर तैराएगा, वो पत्थर की नाव

छोड़े बच्चे, गाँव, घर, पाया रुपया नाम
इतनी सस्ती चीज के, इतने महँगे दाम!

खाली माचिस जोड़कर एक बनाई रेल
बच्चों सा हर रोज मैं उसको रहा धकेल

जाने कैसी चाह थी,जाने कैसी खोज
एक छांव की आस में,चला धूप में रोज

यारो इस बाजार का, अब है यही यथार्थ
रिश्ते पीछे रह गये, आगे निकला। स्वार्थ

यूँ अपारदर्शी हुआ, अपने मन का काँच
बाहर से संभव नहीं, अब भीतर की जाँच

जाने किस दिन माँग ले, वो अपना प्रतिदान
बर्फ शिखर पर दोस्तो, सागर का सामान

स्लीपर फिसलें पांव में नीचे चिपके कीच
तालमेल बैठा रहा, मैं दोनों के बीच

जीवन में खुद को यहाँ, ऐसे रहा सँभाल
पकड़ी हो ज्यों अधर में, काँटों वाली डाल