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हर इक क़दम पे ज़ख़्म नए खाए किस तरह / सब्त अली सबा

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हर इक क़दम पे ज़ख़्म नए खाए किस तरह
रिंदों की अंजुमन में कोई जाए किस तरह

सहरा की वुसअतों में रहा उम्र भर जो गुम
सहरा की वहशतों से वो घबराए किस तरह

जिस ने भी तुझ को चाहा दिया उस को तू ने ग़म
दुनिया तिर फ़रेब कोई खाए किस तरह

ज़िंदाँ पे तीरगी के हैं पहरे लगे हुए
पुर-हौल ख़्वाब-गाह में नींद आए किस तरह

ज़ंजीर-ए-पा कटी तो जवानी गुज़र गई
होंटों पे तेरा नाम-ए-‘सबा’ लाए किस तरह