भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर की पौड़ी से (5) / संजय अलंग

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:52, 26 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> बहती क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहती कहीं पसीने की धारा
तो कहीं गेंदा बन सिमटती गंगा में
सिक्के को लगातार बटोरते जा रहे हैं
क़लम छिटक गई है

गली का शोर जगा नहीं पा रहा है
टिमटिमा रहे है अक्स, पर मौन
कलरव भी नहीं
कान सुन्न दिमाग़ क्लान्त
आवाज़ तो है, पर आवाज़ नहीं
पानी तो है, पर पानी नहं
धार तो है, पर धारा नहीं

बड़ी अभी भी सुलग रही है
पीछा है, आहटों का

भगता जैसे झूमना घातक होगा
दूर निकल गई चाहते, रोकते

उस पार, दूर पेड़ से
टूटकर पत्ता गिरा छप से
आवाज़ कोई सुन न सका