भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हलाहल / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
}}
 
}}
  
{{KKGlobal}}
+
* [[जगत-घट को विष से कर पूर्ण / हरिवंशराय बच्चन]]
{{KKRachna
+
* [[जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़ / हरिवंशराय बच्चन]]
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
+
* [[हिचकते औ' होते भयभीत / हरिवंशराय बच्चन]]
}}
+
* [[हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[कि जीवन आशा का उल्‍लास / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[जगत है चक्‍की एक विराट / हरिवंशराय बच्चन]]
जगत-घट को विष से कर पूर्ण
+
* [[रहे गुंजित सब दिन, सब काल / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[नहीं है यह मानव की हार / हरिवंशराय बच्चन]]
किया जिन हाथों ने तैयार,
+
* [[हलाहल और अमिय, मद एक / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[सुरा पी थी मैंने दिन चार / हरिवंशराय बच्चन]]
लगाया उसके मुख पर, नारि,
+
* [[देखने को मुट्ठी भर धूलि / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[उपेक्षित हो क्षिति से दिन रात / हरिवंशराय बच्चन]]
तुम्‍हारे अधरों का मधु सार,
+
* [[आसरा मत ऊपर का देख / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[कहीं मैं हूँ जाऊँ लयमान / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
* [[और यह मिट्टी है हैरान / हरिवंशराय बच्चन]]
:::नहीं तो देता कब का देता तोड़
+
* [[पहुँच तेरे आधरों के पास / हरिवंशराय बच्चन]]
 
+
:::पुरुष-विष-घट यह ठोकर मार,
+
 
+
:::इसी मधु को लेने को स्‍वाद
+
 
+
:::हलाहल पी जाता संसार!
+
 
+
 
+
जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़
+
 
+
प्रलय हो जाएगा तत्‍काल,
+
 
+
मगर सुमदिर, सुंदरि, सु‍कुमारि,
+
 
+
तुम्‍हारा आता मुझको ख्‍याल;
+
 
+
 
+
:::न तुम होती, तो मानो ठीक,
+
 
+
:::मिटा देता मैं अपनी प्‍यास,
+
 
+
:::वासना है मेरी विकराल,
+
 
+
:::अधिक पर, अपने पर विश्‍वास!
+
 
+
 
+
हिचकते औ' होते भयभीत
+
 
+
सुरा को जो करते स्‍वीकार,
+
 
+
उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहार
+
 
+
हलाहल बनकर देता मार;
+
 
+
 
+
:::मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूम
+
 
+
:::हलाहल पी जाते सह्लाद,
+
 
+
:::उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍त
+
 
+
:::अमर मदिरा का मादक स्‍वाद।
+
 
+
 
+
हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त
+
 
+
नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,
+
 
+
अमृत भी मुझको अस्‍वीकार
+
 
+
अगर कुंठित हो मेरा मान;
+
 
+
 
+
:::दृगों में मोती की निधि खोल
+
 
+
:::चुकाया था मधुकण का मोल,
+
 
+
:::हलाहल यदि आया है यदि पास
+
 
+
:::हृदय का लोहू दूँगा तोल!
+
 
+
 
+
कि जीवन आशा का उल्‍लास,
+
 
+
कि जीवन आशा का उपहास,
+
 
+
कि जीवन आशामय उद्गार,
+
 
+
कि जीवन आशाहीन पुकार,
+
 
+
 
+
:::दिवा-निशि की सीमा पर बैठ
+
 
+
:::निकालूँ भी तो क्‍या परिणाम,
+
 
+
:::विहँसता आता है हर प्रात,
+
 
+
:::बिलखती जाती है हर शाम!
+
 
+
 
+
जगत है चक्‍की एक विराट
+
 
+
पाट दो जिसके दीर्घाकार-
+
 
+
गगन जिसका ऊपर फैलाव
+
 
+
अवनि जिसका नीचे विस्‍तार;
+
 
+
 
+
:::नहीं इसमें पड़ने का खेद,
+
 
+
:::मुझे तो यह करता हैरान,
+
 
+
:::कि घिसता है यह यंत्र महान
+
 
+
:::कि पिसता है यह लघु इंसान!
+
 
+
 
+
रहे गुंजित सब दिन, सब काल
+
 
+
नहीं ऐसा कोई भी राग,
+
 
+
रहे जगती सब दिन सब काल
+
 
+
नहीं ऐसी कोई भी आग,
+
 
+
 
+
:::गगन का तेजोपुंज, विशाल,
+
 
+
:::जगत के जीवन का आधार
+
 
+
:::असीमित नभ मंडल के बीच
+
 
+
:::सूर्य बुझता-सा एक चिराग।
+
 
+
 
+
नहीं है यह मानव का हार
+
 
+
कि दुनिया यह करता प्रस्‍थान,
+
 
+
नहीं है दुनिया में वह तत्‍व
+
 
+
कि जिसमें मिल जाए इंसान,
+
 
+
 
+
:::पड़ी है इस पृथ्‍वी पर हर कब्र,
+
 
+
:::चिता की भूभल का हर ढेर,
+
 
+
:::कड़ी ठोकर का एक निशान
+
 
+
:::लगा जो वह जाता मुँह फेर।
+
 
+
 
+
हलाहल और अमिय, मद एक,
+
 
+
एक रस के ही तीनों नाम,
+
 
+
कहीं पर लगता है रतनार,
+
 
+
कहीं पर श्‍वेत, कहीं पर श्‍याम,
+
 
+
 
+
:::हमारे पीने में कुछ भेद
+
 
+
:::कि पड़ता झुक-झुक झुम,
+
 
+
:::किसी का घुटता तन-मन-प्राण,
+
 
+
:::अमर पद लेता कोई चूम।
+
 
+
 
+
सुरा पी थी मैंने दिन चार
+
 
+
उठा था इतने से ही ऊब,
+
 
+
नहीं रुचि ऐसी मुझको प्राप्‍त
+
 
+
सकूँ सब दिन मधुता में डूब,
+
 
+
 
+
:::हलाहल से की है पहचान,
+
 
+
:::लिया उसका आकर्षण मान,
+
 
+
:::मगर उसका भी करके पान
+
 
+
:::चाहता हूँ मैं जीवन-दान!
+
 
+
 
+
देखने को मुट्ठीभर धूलि
+
 
+
जिसे यदि फँको उड़ जाय,
+
 
+
अगर तूफ़ानों में पड़ जाय
+
 
+
अवनि-अम्‍बर के चक्‍कर खय,
+
 
+
 
+
:::किन्‍तु दी किसने उसमें डाल
+
 
+
:::चार साँसों में उसको बाँध,
+
 
+
:::धरा को ठुकराने की शक्‍त‍ि,
+
 
+
:::गगन को दुलराने की साध!
+
 
+
 
+
उपेक्षित हो क्षिति के दिन रात
+
 
+
जिसे इसको करना था, प्‍यार,
+
 
+
कि जिसका होने से मृदु अंश
+
 
+
इसे था उसपर कुछ अधिकार,
+
 
+
 
+
:::अहर्निश मेरा यह आश्‍चर्य
+
 
+
:::कहाँ से पाकर बल विश्‍वास,
+
 
+
:::बबूला मिट्टी का लघुकाय
+
 
+
:::उठाए कंधे पर आकाश!
+
 
+
 
+
आसरा मत ऊपर का देख,
+
 
+
सहारा मत नीचे का माँग,
+
 
+
यही क्‍या कम तुझको वरदान
+
 
+
कि तेरे अंतस्‍तल में राग;
+
 
+
 
+
:::राग से बाँधे चल आकाश,
+
 
+
:::राग से बाँधे चल पाताल,
+
 
+
:::धँसा चल अंधकार को भेद
+
 
+
:::राग से साधे अपनी चाल!
+
 
+
 
+
कहीं मैं हो जाऊँ लयमान,
+
 
+
कहाँ लय होगा मेरा राग,
+
 
+
विषम हालाहल का भी पान
+
 
+
बढ़ाएगा ही मेरा आग,
+
 
+
 
+
:::नहीं वह मिटने वाला राग
+
 
+
:::जिसे लेकर चलती है आग,
+
 
+
:::नहीं वह बुझने वाली आग
+
 
+
:::उठाती चलती है जो राग!
+
 
+
 
+
और यह मिट्टी है हैरान
+
 
+
देखकर तेरे अमित प्रयोग,
+
 
+
मिटाता तू इसको हरबार,
+
 
+
मिटाने का इसका तो ढोंग,
+
 
+
 
+
:::अभी तो तेरी रुचि के योग्‍य
+
 
+
:::नहीं इसका कोई आकार,
+
 
+
:::अभी तो जाने कितनी बार
+
 
+
:::मिटेगा बन-बनकर संसार!
+
 
+
 
+
पहुँच तेरे अधरों के पास
+
 
+
हलाहल काँप रहा है, देख,
+
 
+
मृत्‍यु के मुख के ऊपर दौड़
+
 
+
गई है सहसा भय की रेख,
+
 
+
 
+
:::मरण था भय के अंदर व्‍याप्‍त,
+
 
+
:::हुआ निर्भय तो विष निस्‍तत्‍त्‍व,
+
 
+
:::स्‍वयं हो जाने को है सिद्ध
+
 
+
:::हलाहल से तेरा अमरत्‍व!
+

12:48, 26 मई 2010 का अवतरण

हलाहल
रचनाकार हरिवंशराय बच्चन
प्रकाशक
वर्ष
भाषा हिन्दी
विषय कविता
विधा
पृष्ठ
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।