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Kavita Kosh से
तुम्हारी दादी के कान नहीं रहे
जिनमें रचमिच रच-मिच गए थे तुम्हारे बोल
उड़ जाते हैं जाड़े के गुनगुने दिन और पतँग
और तुम उन्हें चुपचाप छोड़ आते हो