भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवाएँ न जाने / परमानंद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवाएँ,
न जाने कहाँ ले जाएँ ।

यह हँसी का छोर उजला
यह चमक नीली
कहाँ ले जाए तुम्हारी
आँख सपनीली

चमकता आकाश-जल हो
चाँद प्यारा हो
फूल-जैसा तन, सुरभि-सा
मन तुम्हारा हो

महकते वन हों नदी-जैसी
चमकती चाँदनी हो
स्वप्न-डूबे जंगलों में
गन्ध डूबी यामिनी हो

एक अनजानी नियति से
बँधी जो सारी दिशाएँ
न जाने
कहाँ...ले...जा...एँ ?