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हवा से ज़र्द पत्ते गिर रहे हैं / प्रकाश फ़िकरी

हवा से ज़र्द पत्ते गिर रहे हैं
किताबों के वऱक बिखरे पड़े हैं

इसी पानी में मछली का मकाँ हैं
इसी पानी मे प्यासे हम मेरे हैं

जहाँ गुलज़ार खिलता था हँसी का
वहीं चिमगादड़ों के घोंसले हैं

अँधेरे में डरा देते हैं हम को
ये कपड़े खूंटियों पर जो टँगे हैं

कभी तो ख़ाक में वो भी मिलेंगे
अभी तो चाँद से ‘फिक्री’ बने हैं