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हाँ, मैंने स्वतंत्रता की चाह की / उर्मिल सत्यभूषण

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मैंने स्वतंत्र व्यक्तित्व की चाह की
पर मैंने इस चाह में कभी नहीं चाहा
कि मैं अपने पति को प्यार न करूं
घर की जिम्मेदारियों से मुंह मोडूं
या नातों का, रिश्तों का, सम्मान न करूं
मातृत्व को बोझ समझूं, मैं एक सक्षम नारी
पर परिपूर्णता के लिये
मुझे पति का प्रेम चाहिये था।
सुरक्षा के लिए घर चाहिये था
गर्भ के अंधरों के लिये उजाले चाहिये थे
मेरे बच्चे
उन्हें दुनिया में लाकर
अपने वात्सल्य के दड़बे में
पालती, पोसती और समाज
के लिये सक्षम मनुष्य तैयार करती
मुझे सब कुछ मिला
लेकिन सहचरी बनकर नहीं
अनुचरी बनकर
केवल इस एक शब्द ने
इस एक भाव ने
घर की, प्यार की, दाम्पत्य की
परिभाषा बदल दी
मानव ने दानव बनकर
नारी की सांसों पर पहरे बिठा दिये
उसे नज़र बंद कर दिया
घर को कैद में बदल दिया
मेरे अस्तित्व को, छटपटाने के लिये
पिंजर बंद कर दिया
और मैं विद्रोह पर उतर आई।