Last modified on 17 सितम्बर 2009, at 00:44

हाक़िम हैं / दिविक रमेश

हाकिम हैं बात का बुरा क्योंकर मनाइए
उनकी बला से मानिये या रूठ जाइए।

घर नहीं दीवानखाने आ गए हैं आप
अब उसूलन आप भी ताली बजाइए

लड़ गई आँखें मगर किस दौर में लड़ीं
है गरज जब आपकी तो खुद ही निभाइए

राह उनकी आप फिर राह पर आए क्यों
ज़ख़्मा गई आत्मा तो आप ही उठाइए

मालूम था आना ही है जब यार! इस जानिब
अपमान क्या और मान क्या अब भूल जाइए

मतलब कि पत्थरों ने ज़ख़्म आप को दिए
ख़ैर है अब भी दिविक जो लौट जाइए