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हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरुख़ी से हो गए / साग़र निज़ामी

हादसे क्या क्या तुम्हारी बेरुख़ी से हो गए ।
सारी दुनिया के लिए हम अजनबी से हो गए ।

गर्दिशे दौरां<ref>समय का उतार-चढ़ाव</ref>, ज़माने की नज़र, आँखों की नींद,
कितने दुश्मन एक रस्म-ए-दोस्ती से हो गए ।

कुछ तुम्हारे गेसुओं<ref> केश</ref> की बरहमीं<ref>बिखराव</ref> ने कर दिया
कुछ अन्धेरे मेरे घर में रोशनी से हो गए ।

यूँ तो हम आगाह<ref>अवगत होना</ref> थे सैयाद<ref>शिकारी</ref> की तदबीर<ref>योजना</ref> से,
हम असीर<ref>बंदी</ref>-ए-दामे-गुल अपनी खुदी<ref>अहं</ref> से हो गए ।

हर क़दम ‘सागर’ नज़र आने लगी हैं मंज़िलें
मरहले<ref>मंज़िलें</ref> तय मेरी कुछ आवारगी<ref>बिना मकसद के घूमना</ref> से हो गए ।

शब्दार्थ
<references/>