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हादसों से उबर नहीं पाया / श्याम कश्यप बेचैन

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हादसों से उबर नहीं पाया
रोज़ मर के भी मर नहीं पाया

छोड़ कर मैं चला गया था जिसे
लौट कर फिर वो घर नहीं पाया

मैं वो जम्हूरियत का परचम हूँ
जो कभी भी फहर नहीं पाया

उफ़ मैं उड़ता रहा हवाओं में, बस
शौक़ के पर कतर नहीं पाया

वो समन्दर था उसमें सब कुछ था
मैं ही गहरे उतर नहीं पाया

मैं था जैसे ख़ला में सय्यारा
एक पल भी ठहर नहीं पाया

वक़्त सबसे बड़ा हक़ीम है पर
मेरे ज़ख़्मों को भर नहीं पाया