भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाय-हाय ये मज़बूरी, ये मौसम और ये दूरी / संतोषानन्द

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:59, 15 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोषानन्द }} {{KKCatGeet}} <poem> हाय-हाय ये मज़बूरी, ये मौसम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाय-हाय ये मज़बूरी, ये मौसम और ये दूरी, मुझे पल-पल है तड़पाए
तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए

कितने सावन बीत गए, बैठी हूँ आस लगाए
जिस सावन में मिले सजनवा, वो सावन कब आए
मधुर मिलन का यह सावन हाथों से निकला जाए...

प्रेम का ऐसा बँधन है, जो बँध कर फिर न टूटे
अरे नौकरी का है क्या भरोसा, आज मिले कल छूटे
अम्बर में है रचा स्वयंवर, फिर भी तू घबराए...


फ़िल्म : रोटी, कपड़ा और मकान (1974)