भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाय ! हमें ईश्वर होना था / राकेश रोहित

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:34, 5 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रोहित |संग्रह = }} {{KKCatKavita‎}} <poem> हाय! हमें ईश्वर …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाय! हमें ईश्वर होना था ।
जीवन की सबसे पवित्र प्रार्थना में
अनंत बार दुहराया जाना था इसे
डूब जाना था हमें
अनवरत अभ्यर्थना के शुभ भाव में
घिर जाना था
ईश्वर की अपरिचित गंध में
महसूस करना था
हथेली में छलछलाती
श्रद्धा का रहस्य-भरा अनुभव ।

सत्य के शिखर से उठती
आदिम अनुगूँज की तरह
व्याप्त होना था हमें
पर इन सबसे पहले
हाय! हमें ईश्वर होना था ।

ईश्वर ।
धरती के सारे शब्दों की सुंदरता है इसमें
ईश्वर !
धरती की सबसे छोटी प्रार्थना है यह
ईश्वर ?
हाय, नहीं हैं जो हम ।

अभिमंत्रित आहूतियों से उठती है
उसकी आसक्ति
पितरों के सुवास की धूम से रचता है
उसका चेहरा
जीवन की गरमाई में लहकती है
उसकी ऊष्मा ।
वह सब कुछ होना था
हम सब में, हमारे अंदर
थोड़ा-थोड़ा ईश्वर ।

सोचो तो जरा
सभ्यता की सारी स्मृतियों में
नहीं है
उनका ज़िक्र
हाय ! जिन्हें ईश्वर होना था ।
हाय ! हमें ईश्वर होना था ।