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"हाहाकार / हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
 
उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है।
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जहाँ पथिक जल की झाँकी में एक बूँद के लिए विकल है।
  
घर-घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
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'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है।
 
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बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं?
 
बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं?
बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आंसू पीते हैं।
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बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आँसू पीते हैं।
  
पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना?
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पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आँसू पीना?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।
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चूस-चूस सूखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।
  
 
विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
 
विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
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'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
 
'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
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'दूध-दूध!' मरकर भी क्या तुम बिना दूध के सो न सकोगे?
  
 
वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
 
वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
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हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
 
हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
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'दूध, दूध!' ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!
  
 
(१९३७ ई०)
 
(१९३७ ई०)
 
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11:21, 21 जून 2021 के समय का अवतरण

दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,
तृषावंत मैं घूम रहा कविते! तब से व्याकुल त्रिभुवन में!

उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
जहाँ पथिक जल की झाँकी में एक बूँद के लिए विकल है।

घर-घर देखा धुआँ पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है।

सूख गया रस श्याम गगन का एक घुन विष जग का पीकर,
ऊपर ही ऊपर जल जाते सृष्टि-ताप से पावस सीकर!

मनुज-वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु-जल खारा,
गिरी ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लाख जल की धारा।

पर विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधी खोकर,
कहती- 'गिरी को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी विपासित होकर'।

यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की,
जिनके हित कविते! बनतीं तुम झांकी नग्न अनावृत छवि की।

दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश कुसुम के वन में,
खेल रहीं तुम अलस जलद सी किसी दिव्य नंदन-कानन में।

भूषन-वासन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिस का नाम नहीं है।
दिन-भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है।

वही धन्य, जिनको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर,
जिनका स्वप्न तोड़ पाती है मिटटी नहीं चरण-ताल बजकर!

मेरी भी यह चाह विलासिनी! सुन्दरता को शीश झुकाऊँ,
जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसंतानिल बन जाऊँ!

एक चाह कवि की यह देखूं, छिपकर कभी पहुँच मालिनी तट,
किस प्रकार चलती मुनिबाला यौवनवती लिए कटी पर घाट!

झांकूं उस माधवी-कुंज में, जो बन रहा स्वर्ग कानन में;
प्रथम परस की जहाँ लालिमा सिहर रही तरुणी- आनन में।

जनारण्य से दूर स्वप्न में मैं भी निज संसार बसाऊँ,
जग का आर्त्त नाद सुन अपना हृदय फाड़ने से बच जाऊँ।

मिट जाती ज्यों किरण बिहँस सारा दिन कर लहरों पर झिल--मिल,
खो जाऊँ त्यों हर्ष मनाता, मैं भी निज स्वानों से हिलमिल।

पर, नभ में न कुटी बन पाती, मैंने कितनी युक्ति लगायी,
आधी मिटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी-बनायी।

रह-रह पंखहीन खग-सा मैं गिर पड़ता भू की हलचल में ;
झटिका एक बहा ले जाती स्वप्न-राज्य आँसू के जल में।

कुपित देव की शाप-शिखा जब विद्युत् बन सिर पर छा जाती,
उठता चीख हृदय विद्रोही, अन्ध भावनाएँ जल जातीं।

निरख प्रतीची-रक्त-मेघ में अस्तप्राय रवि का मुख-मंडल,
पिघल-पिघल कर चू पड़ता है दृग से क्षुभित, विवश अंतस्तल।

रणित विषम रागिनी मरण की आज विकट हिंसा-उत्सव में;
दबे हुए अभिशाप मनुज के लगे उदित होने फिर भव में।

शोणित से रंग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें,
जला रही निज सिंहपौर पर दलित-दीन की अस्थि मशालें।

घूम रही सभ्यता दानवे, 'शांति! शांति!' करती भूतल में,
पूछे कोई, भिगो रही वह क्यों अपने विष दन्त गरल में।

टांक रही हो सुई चरम पर, शांत रहें हम, तनिक न डोलें,
यही शान्ति, गर्दन कटती हो, पर हम अपनी जीभ न खोलें?

बोलें कुछ मत क्षुधित, रोटियां श्वान छीन खाएं यदि कर से,
यही शांति, जब वे आयें, हम निकल जाएँ चुपके निज घर से?

हब्शी पढ़ें पाठ संस्कृति के खड़े गोलियों की छाया में;
यही शान्ति, वे मौन रहें जब आग लगे उनकी काया में?

चूस रहे हों दनुज रक्त, पर, हों मत दलित प्रबुद्ध कुमारी!
हो न कहीं प्रतिकार पाप का, शांति या कि यह युद्ध कुमारी!

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छाते कभी संग बैलों का , ऐसा कोई याम नहीं है।

मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।

विभव-स्वप्न से दूर, भूमि पर यह दुखमय संसार कुमारी!
खलिहानों में जहाँ मचा करता है हाहाकार कुमारी!

बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं?
बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आँसू पीते हैं।

पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आँसू पीना?
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।

विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।

कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
'दूध-दूध!' की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है।

'दूध-दूध!' ओ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं,
'दूध-दूध!' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं?

'दूध-दूध!' दुनिया सोती है, लाऊँ दूध कहाँ, किस घर से?
'दूध-दूध!' हे देव गगन के! कुछ बूँदें टपका अम्बर से!

'दूध-दूध!' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे,
'दूध-दूध!' उफ़! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे?

'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
'दूध-दूध!' मरकर भी क्या तुम बिना दूध के सो न सकोगे?

वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध!' जो चिल्लाते हैं।

बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय!
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय?

'दूध-दूध!' फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा!

जय मानव की धरा साक्षिणी! जाय विशाल अम्बर की जय हो!
जय गिरिराज! विन्ध्यगिरी, जय-जय! हिंदमहासागर की जय हो!

हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
'दूध, दूध!' ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!

(१९३७ ई०)