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हिंदी दोहे-5 / रूपम झा

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हर मुखड़ा मायूस है, हर दिल है नाशाद।
कुछ कुनबों के फेर में, देश हुआ बर्बाद।।

कहाँ बिताएँ रात हम, कहाँ सुखों की शाम।
यह दुनिया बाजार है, नहीं हाथ में दाम।।

जितनी ऊँची चीज है, उतना ऊँचा दाम।
वैसा उसको फल मिला, जिसका जैसा काम।।

मेरा यह संकल्प है, लिखूँ सदा जनगीत।
करूँ मित्रता आग से, रखूँ हृदय में शीत।।

हिंदी में जन्मे-पले, हम हिंदी संतान।
हम पर इसका कर्ज है, हो इसका उत्थान।।

ढूँढे से मिलते नहीं, मुझको सच्चे लोग।
इस सारे संसार को, लगा झूठ का रोग।।

परनिंदा केवल सुनें, इस कलयुग के कान।
अच्छी बातों पर नहीं, पड़ता इनका ध्यान।।

जो मेरा इतिहास है, वह तेरा इतिहास।
फिर कैसे तू हो गया, हम लोगों में खास।।

इंग्लिश पटरानी बनी, हिंदी है लाचार।
झेल रही निज देश में, सौतेला व्यवहार।।



मीरा-सी मैं हूँ नहीं, मैं लघु रचनाकार।
लिखूँ कभी तो सच लिखूँ, मेरा यही विचार।।

घटा सुहानी शाम की, छाई है भरपूर।
कहती है नजदीक आ, क्यों है मुझसे दूर।।

बेचैनी का है सबब, ममता, माया, नेह।
मौसम-मौसम में दुखी, जीवन, मन औ देह।।

चार दुनी भी दो कहे, गणित बदलते आज।
नीचे से ऊपर तलक, रुपयों का है राज।।

श्वान, नाग, गिरगिट सदृश, कलयुग के इंसान।
रुपया इनका धर्म है, रुपया ही ईमान।।

जिस बेटे को मानते, थे भविष्य की आस।
वो बस गया विदेश में, तोड़ सभी विश्वास।।

कदम-कदम पर बाज हैं, गौरैये लाचार।
करना होगा अब हमें, इस पर तनिक विचार।।

पढ़ा रहे कॉन्वेंट में, हम अपनी संतान।
और चाहते हिन्द में, हिंदी का उत्थान।।

बहुत सड़क के हादसे, ब्रेकर देता रोक।
रुकता भ्रष्टाचार भी, यदि हम देते टोक।।