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हिन्दी! मेरा संवाद / निशा माथुर

मैं अपने मर्म की बात अपने होठों से कैसे कहूँ?
हालांकी! मौन मेरी भावनाओं की मुखरीत भाषा है।
फिर! मेरे शब्दो का शोर और तमाशा क्यूँ ना बने
जब...
कभी ना थकने और थमने वाली, मेरी हिन्दी भाषा है।

नवयुग की आवाज़ है हिन्दी, संवाद मेरे है बेहतर,
हिन्दी मेरी पहचान बनाती, मैं शब्दो की बुनकर।
अंतस में मीठे स्वर इसके, गुनगुन करते अक्सर,
कोरे कागज श्रंगार सजाती मैं नहीं किसी से कमतर।
फिर! मेरे अन्तर्मन के उद्गार अंगुलियों से क्यूं ना सजे
जब...
कभी ना थकने और थमने वाली, मेरी हिन्दी भाषा है।

अधरों की भाषा है हिन्दी, कोकिल कंठी-सी लयतर,
हिन्दी मेरी शास्वत प्रश्न-सी प्रभाव जिसके उत्तरोत्तर
भाव सिंधु के मीठे झरने सी, अपने तेज से काटे प्रस्तर,
सांसों को होठों पर लाके, आंखों से बातें करती अक्सर।
फिर! मेरे तन का लिबास इसके मान से क्यूं ना खिले,
जब...
कभी ना थकने और थमने वाली, मेरी हिन्दी भाषा है।

मनुहार की अभिलाषा है हिन्दी, एक दुआ से भी बढकर,
हिन्दी मेरी वह सूखी रोटी, छप्पन भोगो से भी श्रेष्ठतर।
बचपन की तुतलाती बोली सी, खुशिया शब्दों-शब्दों पर
तुलसी, कबीर, मीरा की वाणी, कवी सूर के सागर की गागर।
फिर! मेरी माथे की बिदियाँ सी, वंदनीय क्यूं ना खिले
जब...
कभी ना थकने और थमने वाली, मेरी हिन्दी भाषा है।