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"हिन्दी काव्य छंद" के अवतरणों में अंतर

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उस समय अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध उत्पन्न हुआ - उष्णिता से सविता का --- ओजसवी सोम से अनुष्टुप व बृहसपति से बृहती छन्द आये --
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विराट छन्द , मित्र व वरुण से, दिन के समय, त्रिष्टुप इन्द्रस्य का विश्वान्` देवान से सन्पूर्ण देवताओँ का जगती छन्द व्याप्त हुआ उन छन्दोँ से ऋषि व मनुष्य ज्ञानवान हुए-- जिन्हे " यज्ञे जाते" कहा है
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-- ये सृष्टि रचना के साथ उत्पन्न होने से उन्हेँ " अमैथुनीक " कहा गया है.
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इस प्रकार वेद के ७ छन्द हैँ शेष उनके उपछन्द हैँ - उच्चारण करनेवाले तो ये देवता थे परन्तु वे मात्र सहयोग दे रहे थे. किसको ? परमात्मा को --
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ठीक उसी तरह जैसे, हमारा मुख व गले के "स्वर ~ यन्त्र " आत्मा के कहे शब्द उच्चारते हैँ उसी तरह परमात्मा के आदेश पर देवताओँने छन्दोँ का उच्चारण किया जिसे सभी प्राणी भी तद्`पश्चात बोलने लगे व हर्षोत्पाद्`क अन्न व उर्जा को प्राप्त करने लगे.
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इस वाणी को " राष्ट्री " कहा गया जो शक्ति के समान सब दिशा मेँ , छन्द - रश्मियोँ की तरह तरलता लिये फैल गई --
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राष्ट्री वाणी तक्षती, एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी, नवपदी रूप पदोँ मेँ कट कट कर आयी -- कहाँ से ? सहस्त्राक्षरा परमे व्योमान्` से --
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- लावण्या

02:14, 2 दिसम्बर 2007 का अवतरण

छन्द क्या है?
यति¸ गति¸ वर्ण या मात्रा आदि की गणना के विचार से की गई रचना छन्द अथवा पद्य कहलाती है।

चरण या पद छन्द की प्रत्येक पंक्ति को चरण या पद कहते हैं। प्रत्येक छन्द में उसके नियमानुसार दो चार अथवा छह पंक्तियां होती हैं। उसकी प्रत्येक पंक्ति चरण या पद कहलाती हैं। जैसे –

रघुकुल रीति सदा चलि जाई।
प्राण जाहिं बरू वचन न जाई।।

उपर्युक्त चौपाई में प्रथम पंक्ति एक चरण और द्वितीय पंक्ति दूसरा चरण हैं।

मात्रा
किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है¸ उसे 'मात्रा' कहते हैं। 'मात्राएँ' दो प्रकार की होती हैं: (1) लघु (2) गुरू

लघु मात्रायें – उन मात्राओं को कहते हैं जिनके उच्चारण में बहुत थोड़ा समय लगता है। जैसे – अ¸ इ¸ उ¸ ऋ की मात्रायें ।

गुरू मात्राएँ – उन मात्राओं को कहते हैं जिनके उच्चारण में लघु मात्राओं की अपेक्षा दुगुना अथवा तिगुना समय लगता हैं। जैसे – ई¸ ऊ¸ ए¸ ऐ¸ ओ¸ औ की मात्रायें।

लघु वर्ण – हृस्व स्वर और उसकी मात्रा से युक्त व्यंजन वर्ण को 'लघु वर्ण' माना जाता है¸ उसका चिन्ह एक सीधी पाई(।) मानी जाती है।

गुरू वर्ण – दीर्घ स्वर और उसकी मात्रा से युक्त व्यंजन वर्ण को 'गुरू वर्ण' माना जाता है। इसकी दो मात्रायें गिनी जाती है। इसका चिन्ह (|) यह माना जाता है।

उदाहरणार्थ –
क¸ कि¸ कु¸ र्क – लघु मात्रायें हैं।
का¸ की¸ कू ¸ के ¸ कै ¸ को ¸ कौ – दीर्घ मात्रायें हैं।

मात्राओं की गणना
(1) संयुक्त व्यन्जन से पहला हृस्व वर्ण भी 'गुरू अथार्त् दीर्घ' माना जाता है।
(2) विसर्ग और अनुस्वार से युक्त वर्ण भी \"दीर्घ\" जाता माना है। यथा – 'दु:ख और शंका' शब्द में 'दु' और 'श' हृस्व वर्ण होंने पर भी 'दीर्घ माने जायेंगे।
(3) छन्द भी आवश्यकतानुसार चरणान्त के वर्ण 'हृस्व' को दीर्घ और दीर्घ को हृस्व माना जाता है।

यति और गति यति – छन्द को पढ़ते समय बीच–बीच में कहीं कुछ रूकना पड़ता हैं¸ इसी रूकने के स्थान कों गद्य में ' विराग' और पद्य में 'यति' कहते हैं।
गति – छन्दोबद्ध रचना को लय में आरोह अवरोह के साथ पढ़ा जाता है। छन्द की इसी लय को 'गति' कहते हैं।
तुक – पद्य–रचना में चरणान्त के साम्य को 'तुक' कहते हैं। अथार्त् पद के अन्त में एक से स्वर वाले एक या अनेक अक्षर आ जाते हैं¸ उन्हीं को 'तुक' कहते हैं।

तुकों में पद श्रुति¸ प्रिय और रोंचक होता है तथा इससे काव्य में लथपत सौन्दर्य आ जाता है।

छन्दों के भेद

छन्द तीन प्रकार के होते हैं –
(1) वर्ण वृत्त – जिन छन्दों की रचना वर्णों की गणना के नियमानुसार होती हैं¸ उन्हें 'वर्ण वृत्त' कहते हैं।
(2) मात्रिक – जिन छन्दों के चारों चरणों की रचना मात्राओं की गणना के अनुसार की जाती है¸ उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं।
(3) मुक्तक – जिन छन्दों की रचना में वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या का कोई नियम नहीं होता¸ उन्हें 'मुक्तक' छन्द कहते हैं।

हिन्दी काव्य छंद

दोहा . चौपाई . सोरठा . छप्पय . पद . रुबाई . कवित्त . सवैया . रोला . कुण्डली . त्रिवेणी . सॉनेट

लोक छंद

आल्हा

काव्य विधाएँ

नज़्म . ग़ज़ल

== छन्द क्या थे ? ==श्री गुरुदत्तजी की लिखी एक पुस्तक पढ रही हूँ --

" वेद और वैदिक काल "

( उसमेँ बहोत सी जानकारी छन्द क्या थे ? उस पर उपलब्ध है ) -

" कासीत्प्रमा प्रतिमा किँ निदानमाज्यँ किमासीत्परिधि: क आसीत्` छन्द: किमासीत्प्रौगँ किँमुक्यँ यद्देवा देवमजयन्त विश्वे "

जब सम्पूर्ण देवता परात्मा का यजन करते हैँ लब उनका जो स्वरुप क्या था ? इस निर्धारण और निर्माण मेँ क्या पदार्थ थे? उसका घेरा कितना बडा था? वे छन्द क्या थे जो गाये जा रहे थे?


वेद इस पूर्ण जगत का ही वर्णन करते हैँ कहा है कि, जब इस जगत के दिव्य पदार्थ बने तो छन्द उच्चारण करने लगे

वे " छन्द " क्या थे?

" अग्नेगार्यत्र्यभवत्सुर्वोविष्णिहया सविता सँ बभूव अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान्बृहस्पतयेबृँहती वाचमावत् विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्ण्: विश्वान्देवाञगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: "

ऋ: १० -१३० -४, ५

उस समय अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध उत्पन्न हुआ - उष्णिता से सविता का --- ओजसवी सोम से अनुष्टुप व बृहसपति से बृहती छन्द आये --

विराट छन्द , मित्र व वरुण से, दिन के समय, त्रिष्टुप इन्द्रस्य का विश्वान्` देवान से सन्पूर्ण देवताओँ का जगती छन्द व्याप्त हुआ उन छन्दोँ से ऋषि व मनुष्य ज्ञानवान हुए-- जिन्हे " यज्ञे जाते" कहा है

-- ये सृष्टि रचना के साथ उत्पन्न होने से उन्हेँ " अमैथुनीक " कहा गया है.

इस प्रकार वेद के ७ छन्द हैँ शेष उनके उपछन्द हैँ - उच्चारण करनेवाले तो ये देवता थे परन्तु वे मात्र सहयोग दे रहे थे. किसको ? परमात्मा को -- ठीक उसी तरह जैसे, हमारा मुख व गले के "स्वर ~ यन्त्र " आत्मा के कहे शब्द उच्चारते हैँ उसी तरह परमात्मा के आदेश पर देवताओँने छन्दोँ का उच्चारण किया जिसे सभी प्राणी भी तद्`पश्चात बोलने लगे व हर्षोत्पाद्`क अन्न व उर्जा को प्राप्त करने लगे.

इस वाणी को " राष्ट्री " कहा गया जो शक्ति के समान सब दिशा मेँ , छन्द - रश्मियोँ की तरह तरलता लिये फैल गई --


राष्ट्री वाणी तक्षती, एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी, नवपदी रूप पदोँ मेँ कट कट कर आयी -- कहाँ से ? सहस्त्राक्षरा परमे व्योमान्` से -- - लावण्या