भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिन्दू / अरुण देव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम राम कहूँगा
हज़ारों वर्ष से कहते आ रहे हैं पुरखे

नहीं करूँगा हमसाये से नफ़रत
धरती एक कुटुम्ब है ऐसा कहा था पूर्वजों ने

सत्य पर नहीं है मेरा ही हक़
तमाम रास्ते हैं जो चाहे जैसा चुन ले

काम की सांसारिकता और मोक्ष की आध्यात्मिकता
विलोम नहीं है मेरे लिए

दूँगा अर्घ्य सूर्य को
चन्द्रमा के नीचे मीठी खीर रिझेगी
पूजा करूँगा नदियों की
पर्वतों पर चढ़ने से पहले करूँगा प्रणाम
वृक्षों के गिर्द प्रदक्षिणा का अनन्त वृत्त हूँ

बुद्ध की तरह अतियों से बचना सीख लिया है
मैं वह हिन्दू नहीं
जो समुद्र नहीं पार करता था
क़ैद अपने वर्ण में
करता था भेदभाव अपनों से
चुप रह जाता था एकलव्य की उँगली काटे जाने पर

मैंने पढ़ा है मीर ग़ालिब शेक्सपियर
मुझे गढ़ा है गान्धी अम्बेडकर लोहिया ने ।