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हिमशिखर (कविता) / रामगोपाल 'रुद्र'

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अपने सुख-दुख की बात कहो तुम अपने से;
किसको इतना अवकाश तुम्हारा मन देखे!
जिसमें निज रूप निहार उषा शरमा जाती,
बिम्बित शत-शत शतपत्रों पर भरमा जाती;
बिंधकर जिसके हिम-अंक, अनलपंखोंवाली
किरणों की क्रूर शलाका भी नरमा जाती;

दिव ही जाने, उसके दिल पर क्या होता है
अवनीतल को क्या ज्ञात, शिखर क्या होता है!

खेतों का मोर, गरुड़ या हंस नहीं होता!
किस भाँति हिमाचल का नीरज-दर्पण देखे?

मिट्‍टी के बरतन और खिलौने सस्ते हैं,
दो क्षण इनसे ही लोग हँसाते-हँसते हैं;
किस हेतु जुगोया जाय नयन-घट में पानी?
हर ओर हज़ार दृगों से इन्‍द्र बरसते हैं!

टीला होते तो खेत भले तुम हो जाते!
हिमतल के समतल से कैसे निबहें नाते?

विद्युद्‍घन भी कटिबंध बने रह जाते हैं;
धूमल दृग फिर किस भाँति तुहिन क तन देखे?

जीवनदानी बन देह गलाते रहते हो;
क्या पीर नहीं, पर-हित, प्राणों में सहते हो?
दिग्दाह दयारों को जब रेत बनाता है,
तुम आप उमड़ सौ-सौ आँखों से बहते हो!

तुमसे उर्वर होनेवाला ऊसर-ऊसर
प्रतिदान तुम्हें क्या देता है? दानी भूधर!

संचय खोने में लाभ तुम्हीं समझो, ज्ञानी!
धरती ऐसे उत्सर्जन में क्या धन देखे!