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हुंकार / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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 समस्या के छै एैन्हों विस्तार, मन दुखोॅ सें अकुलावै छै,
चिन्ता सें कुंठित ई काया, करेॅ नै कुछ्छु भी पावै छै।

समनै में छै सागर के गर्जन, अलसैलोॅ छै देशोॅ के जन-मन,
स्वार्थ में जे डूबलोॅ छै, दै रहलोॅ छै कोनोॅ निमंत्रण।

दुख-बिथा सें भरलोॅ हृदय केॅ , मिली रैल्होॅ छै संवेदना,
जरला जिनगी केॅ दै रहलोॅ छै, आय सहज कोय चेतना।

बदला लै खातिर उठना छै, लहर-लहर पर देखोॅ रोष,
उमतैलोॅ छै पागल जुआनी, लैकेॅ अपना में नयका जोश ।

शोषित, गरीब, दलितोॅ के, करना छै आबेॅ उद्धार,
कुलपित जरलोॅ जिनगी लेली, खुद बनना छै तारनहार।

हम्में वहेॅ तूफान छेकां, जे रोकला सें नै रूकै छै,
हम्में वहेॅ आदेश छेकां, जे टालला सें नै टलै छै।

हम्में वहेॅ तलवार छेकां, जे झुकैला सें नै झुकै छै,
लक्ष्य हम्में छेकां वहेॅ , जे चूकला सें नै चूकै छै।

भूत सें भयभीत कैन्हें देशवासी, नै वर्तमान छै बेकार,
भविष्य नें निश्चय ही भरतै, आवेॅ एक नया हुंकार।